Ashwathama || एक अमर योद्धा की कहानी
भारतीय पौराणिक कथाओं ने हमें कई रहस्यमय चरित्रों के बारे में सुनाया है, और उनमें से एक है अश्वत्थामा, महाभारत के युद्धकाण्ड से जुड़ा हुआ। विचलित और अज्ञात, अश्वत्थामा आज भी असीरगढ़ किले के आसपास भटक रहे हैं, उस युग के श्राप के कारण जिसमें वे जीने के लिए प्रतिबद्ध हुए थे।
महाभारतकाल के दौरान अश्वत्थामा को एक अद्वितीय और शक्तिशाली योद्धा माना जाता था। उनकी बहादुरी, शस्त्रविद्या, और योद्धा धरोहर के लिए वे प्रसिद्ध थे। उनका जन्म गुरु द्रोणाचार्य और कृपाचार्य के यहां हुआ था, जो कि महाभारत के महत्वपूर्ण आध्यात्मिक गुरु थे।
अश्वत्थामा की कहानी
महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध में गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा का योगदान अत्यधिक था। उन्होंने धनुर्विद्या में निपुणता हासिल की थी और महाभारत के युद्ध में कई महत्वपूर्ण भूमिकाओं में रहे। अश्वत्थामा महाभारत के महत्वपूर्ण प्रमुख योद्धाओं में से एक थे जो महाभारत के युद्ध में अपने असाधारण योद्धा दक्षता और उनके अद्वितीय योद्धा कौशल के लिए प्रसिद्ध थे। Ashwathama ने महाभारत के सभी 18 दिनों के युद्ध का सामना किया और अपनी अद्वितीय योद्धा शैली से युद्धभूमि पर चमक दिखाई।
हालांकि, उनके जीवन का एक अध्भुत परिवर्तन हुआ जब उन्होंने अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए युद्धभूमि में अविवेकी तरीके से किया। इस प्रतिबद्धि के फलस्वरूप, उन्हें श्रीकृष्ण ने युगों-युगों तक भटकने का श्राप दिया।
पिता की मृत्यु का बदला – Ashwathama
अश्वत्थामा का जीवन महत्वपूर्ण पलों से भरा हुआ है, जब उन्होंने अपने पिता के मृत्यु का बदला लेने का निर्णय किया। उनके पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद, उन्होंने युद्धभूमि पर पांडवों के प्रति अपनी भूमिका को महत्वपूर्ण बनाया। इसमें उनकी साहस, धैर्य और निष्ठा का परिचय होता है।
भगवान श्रीकृष्ण का श्राप
हालांकि, अश्वत्थामा ने एक अत्यंत घोर प्रतिशोध का निर्णय लिया, लेकिन उनकी अभिशाप भरी कहानी भी है। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र पारीक्षित की मात्र गर्भ में होते हुए उन्हें ब्रह्मास्त्र से मारने का प्रयास किया, जिसका परिणाम स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन पर एक अद्वितीय श्राप दिया। उन्हें युगों-युगों तक भटकते रहने का श्राप मिला। इसके परिणामस्वरूप Ashwathama अज्ञात रूप से भटकते रहते हैं और अपनी पापों का प्रायश्चित्त करते रहते हैं।
अश्वत्थामा की बुजुर्गों की गवाही
Ashwathama की अस्तित्व की गवाही यहां के लोगों की कथाओं और आपबीतियों में मिलती है। वहां के बुजुर्गों ने अपने दादा के साथ कई बार अश्वत्थामा को देखा है और कहा है कि एक बार जब वे मछली पकडऩे तालाब में गए थे, तो अंधेरे में उन्हें तेजी से धक्का दिया गया था। शायद धक्का देने वाले को उनका वहां आना पसंद नहीं आया। गांव के कई बुजुर्गों की मानें हैं कि जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।
असीरगढ़ का किला
अश्वत्थामा का एक महत्वपूर्ण स्थान है असीरगढ़ का किला जो मध्यप्रदेश के बुरहानपुर जिले में स्थित है। यह किला एक प्राचीन साकारात्मक रचना है जो महाभारतकाल से जुड़ी मान्यता और धार्मिक महत्वपूर्णता के साथ विशेष रूप से जाना जाता है। असीरगढ़ किले में स्थित शिव मंदिर में अश्वत्थामा की पूजा रोज़ाना की जाती है और लोग यहां उनकी कृपा और आशीर्वाद के लिए आते हैं।
अश्वत्थामा का असीरगढ़ में भटकना
इतिहास से लबरेज, अश्वत्थामा आज भी असीरगढ़ किले के आसपास भटकते हैं, अपने पिता की श्राप के तले जीते हुए। बुरहानपुर, मध्य प्रदेश स्थित असीरगढ़ किले की शिवमंदिर में अश्वत्थामा प्रतिदिन पूजा करने आते हैं। इस मंदिर में शिवलिंग पर प्रतिदिन सुबह ताजा फूल एवं गुलाल चढ़ाकर उनकी पूजा की जाती है। यहां के लोग मानते हैं कि Ashwathama का आत्मा इस मंदिर में आती है और वे पूजा के माध्यम से शांति प्राप्त करते हैं।
शिव मंदिर में पूजा-अर्चना
असीरगढ़ किले में स्थित शिवमंदिर में अश्वत्थामा प्रतिदिन पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। मंदिर का रूप बुरहानपुर के अलावा मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर के गौरीघाट के किनारे भी अश्वत्थामा भटकते रहते हैं। स्थानीय निवासियों के अनुसार, कभी-कभी वे अपने मस्तक के घाव से बहते खून को रोकने के लिए हल्दी और तेल की मांग भी करते हैं। इस मंदिर में पूजा लगातार जारी है, जिससे स्थानीय लोग Ashwathama के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
बुरहानपुर का इतिहास
डॉ. मोहम्मद शफी के अनुसार, बुरहानपुर का इतिहास महाभारतकाल से जुड़ा हुआ है। पहले यह जगह खांडव वन से जुड़ी हुई थी और किले का नाम असीरगढ़ यहां के एक प्रमुख चरवाहे आसा अहीर के नाम पर रखा गया था। किले को यह स्वरूप 1380 ई. में फारूखी वंश के बादशाहों ने दिया था।
अश्वत्थामा की चरित्रशीलता : Ashwathama
अश्वत्थामा का परिचय उनकी चरित्रशीलता से पूरा होता है। उन्होंने महाभारत के युद्ध के समय अपनी आदर्शवादी और निष्ठावान प्रवृत्ति के लिए प्रसिद्धता प्राप्त की थी। अपने अद्वितीय ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के बावजूद, उन्होंने कभी असहाय और निष्ठावानता से विचलित नहीं हुए।
दिनचर्या और तपस्या
अश्वत्थामा ने अपने जीवन में साधना और तपस्या को महत्वपूर्ण बनाया। उनका दिनचर्या में ध्यान और योग का स्थान था, जिससे उन्होंने अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखा। उनकी तपस्या ने उन्हें एक उद्दीपन रूप में बनाया जो लोगों को प्रेरित करता है।
भारतीय समर्थन और अधिकार
अश्वत्थामा ने महाभारत के युद्ध में अपनी साहसी भूमिका के लिए भारतीय समर्थन और अधिकार की मांग की। Ashwathama अपने योद्धा धर्म के प्रति पूरी तरह से आत्मसमर्पण का परिचय किया और इसके लिए उन्हें लोगों का समर्थन मिला।
योद्धा धरोहर
अश्वत्थामा का योद्धा धरोहर उनकी अद्वितीय योद्धा शैली को दर्शाता है। Ashwathama शस्त्रविद्या और योद्धा कला में निपुणता ने उन्हें महाभारत के एक प्रमुख रथयात्री योद्धा बना दिया।
आध्यात्मिक आस्था
अश्वत्थामा का जीवन आध्यात्मिक आस्था से परिपूर्ण था। उन्होंने युद्ध के बाद अपने प्रतिशोध का मार्ग चुना, लेकिन उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के श्राप के कारण भटकते रहने का सामर्थ्य प्राप्त किया। इससे उनका जीवन एक आध्यात्मिक सागर की तरह था, जिसने लोगों को अपनी आध्यात्मिक यात्रा में प्रेरित किया।
Ashwathama की कहानी एक ऐसे योद्धा की है, जिन्होंने अपने जीवन को साहस, धैर्य, और आध्यात्मिकता के साथ भरा। उनकी शूरवीरता और आदर्शवादी चरित्र ने उन्हें महाभारत के इतिहास में एक अद्वितीय स्थान दिलाया है।
कैसे पहुंचें असीरगढ़
असीरगढ़ किला बुरहानपुर से लगभग 20 किमी की दूरी पर उत्तर दिशा में सतपुड़ा पहाडिय़ों के शिखर पर समुद्र सतह से 750 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। बुरहानपुर खंडवा से लगभग 80 किमी दूर है। यहां से बुरहारनपुर तक जाने के लिए ट्रेन, बसें व टैक्सी आसानी से मिल जाती है। यहां से सबसे नजदीकी एयरपोर्ट इंदौर है, जो करीब 180 किमी दूर है। बुरहानपुर मध्य प्रदेश के सभी बड़े शहरों से रेल मार्ग द्वारा जुड़ा है।
इस अद्भुत स्थान का दौरा करने से आप महाभारतकाल के एक अनूठे और रहस्यमय चरित्र के साथ जुड़ सकते हैं, जो आज भी जीवित हैं और असीरगढ़ के किले में भटकते रहते हैं।